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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःबिखरे मोती

थाती

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क्या पूछते हो ? उनका नाम ? हाय !! रहने दो; मुझसे नाम न पूछो । उनका नाम जुबान पर लाने का मुझे अधिकार ही क्या है ? तुम्हें तो मेरी कहानी से मतलब है न ? हाँ, तो मैं क्या कह रही थी ?--मुझसे कहा गया कि मैं उनसे कभी न बोलूं । यदि यह लोग फिर कभी मुझे उनसे बोलते देख लेंगे तो फिर कुशल नहीं । मैंने दीन भाव से कहा, “मुझसे घर के सब काम करवा लो; परन्तु कल से मैं पानी भरने न जाऊंगी।”
इस पर पतिदेव बिगड़ कर बोले-तुम पानी भरने न जाओगी तो मैं तुम्हें रानी बना कर नहीं रख सकता । यहाँ, तो जैसा हम कहेंगे वैसा करना पड़ेगा ।

उसके बाद क्या बतलाऊँ कि क्या-क्या हुआ ? ज्यों- ज्यों मुझे उनसे बोलने को रोका गया, त्यों-त्यों एक बार जी भर कर उनसे बात करने के लिए मेरी उत्कंठा प्रबल होती गई। किन्तु मेरी यह साध कभी पूरी न हुई। वे जाते-जाते एक-दो बातें बोल दिया करते, जिसके उत्तर में मैं केवल हँस दिया करती थी, लेकिन लोग यह भी ने सह सके और तिल का ताड़ बन गया ।

अब मुझ पर घर में अनेक प्रकार के अत्याचार होने लगे। हर दो-चार दिन बाद मुझ पर मार भी पड़ती; परंतु मैं कर ही क्या सकती थी? मैं तो उनसे बोलती भी न थी। और उनका बोलना बाद करना मेरी शक्ति से परे था। उन्होंने मुझसे कभी भी कोई ऐसी बात नहीं कही जो अनुचित कही जा सके। उन्हें तो शायद विधाता ने ही रोते हुओं को हँसा देने की कला सिखाई थी। वे ऐसी मीठी चुटकी लेते, कभी हँसी की बात भी करते तो इतनी सभ्यता से, इतनी नपी-तुली, कि मैं चाहे कितनी दुखी होऊँ, चाहे जितने रंज में होऊँ, हँसी आ ही जाती थी।
किंतु धीरे-धीरे मुझ पर होने वाले अत्याचारों का पता उन्हें लग ही गया। उनके दयालु हृदय को इससे गहरी चोट पहुँची । उस दिन, अंतिम दिन जब पैं पानी भरने गई, वे कुएँ पर आए और मुझसे बोले, "मैं तुमसे कुछ कहना चाहता हूँ।"

उनके स्वर में पीड़ा थी, शब्दों में माधुर्य, और आँखों में न जाने कितनी करुणा का सागर उमड़ रहा था। मैंने आश्चर्य के साथ उनकी ओर देखा। आज पहिली ही बार तो इस प्रकार वे मेरे पास आकर बोले थे। उन्होंने कहा, "पहली बात जो मैं तुमसे कहना चाहता हूँ वह यह कि मेरे कारण तुम पर इतने अत्याचार हो रहे हैं। यदि मुझे पता चल जाता तो वे अत्याचार कब के बंद हो चुके होते। दूसरी बात जो मैं तुमसे कहने आया हूँ वह यह कि आज से मैं तुम पर होते अत्याचार की जड़ उखाड़कर फेंके देता हूँ। तुम खुश रहना, मेरी अल्हड़ रानी! (वे मुझे इसी नाम से पुकारते थे) यदि मैं तुम्हें भूल सका तो फिर यहाँ लौटकर आऊँगा, नहीं तो आज ही सदा के लिए विदा होता हूँ।"

मुझ पर बिजली-सी गिरी। मैं कुछ बोल भी न पाई थी कि वे मेरी आँखों से ओझल हो गए। अब मेरी हालत पहिले से ज्यादा ख़राब थी। मेरा किसी काम में जी न लगता था। कलेजे में सदा एक आग-सी सुलगा करती। परंतु मुझे खुलकर रोने का अधिकार न था। अब तो सभी लोग मुझे पागल कहते हैं। मैं कुछ भी करूँ करने देते हैं। इसीलिए तो आज खुलकर रो सकती हूँ और तुम्हें भी अपनी कहानी सुना सकती हूँ। किंतु क्या तुम यह बता सकोगे कि वे कहाँ हैं? मैं एक बार उन्हें और देखना चाहती हूँ। मेरी यह पीड़ा, मेरा यह उन्माद उन्हीं का दिया हुआ तो है। यदि कोई सहदय उनका पता बता दे तो मैं उनकी थाती उन्हीं को सौंप दूँ।

 


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